आजादी के बाद पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की सत्ता स्थापित हुई थी जिस दौरान पश्चिम बंगाल की जनता को भयंकर आकाल का सामना करना पड़ा था। 1977 के बाद से बंगाल में लगातार सत्ता परिवर्तन होता रहा है लेकिन जनता की स्थिति जस की तस बनी रही और कोई सरकार ने जनता के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया। तत्पश्चात वामपंथियों ने बंगाल की जनता को सस्ती और सुलभ ज़िंदगी की चाहत का झूठा वादा किया और अपनी सरकार बनाई जो 34 वर्षो तक बंगाल पर सत्ता काबिज रही। वामपंथियों की सरकार को ममता बनर्जी ने उखार फेंक और 20 मई 2011 को पहली बार बतौर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण किया।
पश्चिम बंगाल में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, लेकिन राज्य भर में चुनावी माहौल अभी से काफ़ी गर्म हो चुका है। जीत किसकी होगी ये कहना काफ़ी मुश्किल है, लेकिन इस समय केवल एक रुझान साफ़ है और वो ये कि इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के बीच कांटे की टक्कर होने वाली है।
पश्चिम बंगाल की वर्तमान स्थिति को देखकर लगता है जनता ने एक बार फिर करवट बदल कर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को आजमाने का मन बना लिया है। ममता दीदी इतिहास को दोहराता देख बैचेन हो रही हैं। वे ऊपर से भले तेज तरार दिख रही हो, पर उनका दिल उनको स्पष्ट संदेश दे रहा है की अभी नहीं तो कभी उनको अपनी विदाई के लिए तैयार रहना ही होगा। माकपा सरकार के दौरान सेज इकोनोमिकल जोन बने सिंगूर से संभवतः नैनो कपनी को अपना डेरा डंडा उखाड़ने के लिए इन्हीं ममता बनर्जी ने ही तो विवश किया था।
उन दिनों तत्कालीन सरकार के साथ ममता यही सब बिना बात के बांटगण करती थीं, जो आज उन्हें बीजेपी करती दिख रही है। ममता बनर्जी जानती है बीजेपी यदि फील्ड में टिकी रहेगी तो उनकी सरकार पश्चिम बंगाल से जाना तय है। क्योंकि कभी ममता द्वारा टीके रहकर पश्चिम बंगाल की तत्कालीन सरकार की नीतियों की चादर को फाड़ने, उसे कूड़ा बनाकर अपने लिए सत्ता का रास्ता साफ करने का अनुभव ही आज उन्हें बीजेपी पूरे दम खम के साथ आजमा रही है।
सवाल ये है कि बीजेपी ममता के विरोध में सभी प्रकार के अस्त्रों का प्रयोग क्यों न करे? दोनों ही पार्टियों के लिए सवाल सत्ता का है। बीजेपी को वहाँ के जनमानस के बीच प्रवेश करने का मौका खुद ममता दीदी ने ही दिया है, वह भी अपने अहम पूर्ण प्रतिक्रिया वादी स्वभाव के चलते। बीजेपी ने पश्चिम बंगाल कि मनोभूमि के ममता के मनोदशा का भी गहरा अध्ययन किया है और पूरे प्रदेश में अपनी भूमिका तय की है।
वास्तव में ममता की यह बौखलाहट उनके अपनी पार्टी टीएमसी की प्रांत की जनता पर ढीली होती पकड़ का परिणाम है। बीजेपी की जनलोकप्रियता संबंधी फंदा जैसे जैसे ममता के गले पर बढ़ता जा रहा है, वैसे वैसे वे आगबबूला होंगी और बौखलायेंगी भी। फिर तो ममता है, उनका एकला चलों रे का नारा उन्हें इन दिनों धराशायी जो होता दिख रहा है।
यद्यपि कभी बंगाल की जनता ने अपना दिल पूरी तरह से दीदी को दिया था, तो अब वह दिल ममता दीदी से टूट रहा है। तो ममता कभी बीजेपी पर, कभी केंद्र सरकार पर, कभी जनता पर, कभी अपने ही कार्यकर्ताओं पर बौखलायेंगी, यह बौखलाहट अभी तो शुरुआत है। चुनाव आने तक और बढेगी। बंगाल ने कभी किसी को अधूरा दिल नहीं दिया है। जब दिया तो फिर किसी दूसरे को उसने बर्दास्त नहीं किया है । जिसे उखाड़ा उसके प्रति एकदम सौतिया डाह जैसी तेजगी बंगाल वासियों में देखने को मिली।
पश्चिम बंगाल में इन दिनों शायद ही कोई ऐसा दिन गुज़रता है जब राजनीतिक हिंसा की कोई ख़बर ना सुनाई देती हो, कि फ़लां जगह पर किसी पार्टी दफ़्तर पर हमला हुआ, किसी जगह समर्थक आपस में भिड़ गए। अधिकतर घटनाएँ छोटी झड़पों की होती हैं, लेकिन कुछ सालों में कुछ बड़ी घटनाएँ बड़ी सुर्खियाँ बनीं है- पिछले साल 13 जुलाई 2020 को उत्तर दिनाजपुर ज़िले में हेमताबाद क्षेत्र के विधायक देवेंद्र नाथ रॉय की लाश बीच बाज़ार में फंदे से लटकी मिली। कुछ महीने पहले 4 अक्तूबर 2020 को कोलकाता के पास उत्तर 24 परगना ज़िले के टीटागढ़ शहर में बीजेपी के एक स्थानीय युवा नेता मनीष शुक्ला को सरेआम गोलियों से छलनी कर दिया गया।
2018 के मई महीने में पुरुलिया ज़िले में बीजेपी कार्यकर्ता त्रिलोचन महतो की लाश पेड़ से लटकी मिली थी, साथ ही उसके कपड़े पर एक संदेश भी लिखा मिला था। गृहमंत्री अमित शाह जी ने तब इस घटना को लेकर ट्वीट किया था। पिछले महीने 10 दिसंबर की घटना भी सुर्खियों में आई जब कोलकाता में भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और पार्टी के पश्चिम बंगाल प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय के काफ़िले पर हमला हुआ।
बीजेपी ने इसे ‘गुंडाराज’ क़रार दिया तो ममता बनर्जी ने इसे ‘नौटंकी’ का नाम दे दिया। प्रदेश में आए दिन हिंसा की घटनाओं का सिलसिला जारी है, बयानों में अक्सर बांग्ला भाषा का एक शब्द बार-बार सुनाई देता है – संत्रास – जिसका मतलब है, आतंक, दहशत। बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने बीबीसी से अपने बातचीत में कहा- “हिंसा का शिकार होने के बावजूद हमारी ही पार्टी के लोगों के ऊपर लगभग 500 मामले दर्ज किए गए हैं जिनमें बैरकपुर के सांसद अर्जुन सिंह के ख़िलाफ़ 73 और वरिष्ठ पार्टी नेता मुकुल रॉय के ख़िलाफ़ 23 मामले दर्ज हैं”।
कोलकाता में राजनीतिक विश्लेषक अरुंधति मुखर्जी कहती हैं, “फ़िलहाल झुकाव बीजेपी की तरफ़ अधिक दिखाई देता है।” कोलकाता रिसर्च ग्रुप के सियासी विश्लेषक रजत रॉय के विचार में भी इस समय बीजेपी की मुहिम में गति दिखती है। लेकिन अरुंधति मुखर्जी के अनुसार इसका मतलब ये नहीं है कि बीजेपी ही चुनाव जीतेगी या नहीं जीत सकती । वो कहती हैं, “राज्य में बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जो ममता बनर्जी की सरकार से ऊब चुके हैं। एंटी-इनकंबेंसी फ़ैक्टर भी बहुत अधिक है। बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं, जो मोदी सरकार को पसंद नहीं करते। ये दोनों तरह के लोग कांग्रेस और वाम मोर्चे के गठबंधन को वोट देंगे। अगर गठबंधन का वोट शेयर बढ़ा, तो ममता बनर्जी को फायदा हो सकता है”।
कोलकाता के ही राजनीतिक जानकार विश्वजीत भट्टाचार्य इस बात से सहमत हैं कि गठबंधन को अगर अधिक वोट मिले, तो नुक़सान बीजेपी को हो सकता है, क्योंकि टीएमसी का वोट शेयर कई चुनावों से लगभग एक जैसा रहा है। बंगाल में बीजेपी को पड़ने वाले वोट एक समय में वाम दलों को पड़ा करते थे। टीएमसी के वोटर बीजेपी की तरफ़ ट्रांसफ़र नहीं हुए हैं। बीजेपी का 2019 के आम चुनाव में वोट शेयर लगभग 40 प्रतिशत तक पहुँच गया, जिसने कई लोगों को हैरान कर दिया और ये बढ़ोतरी वाम मोर्चे के वोट ट्रांसफ़र होने से हुई थी।
राज्य में बीजेपी ने धीरे-धीरे अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी हैं। साल 2011 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कुल 294 सीटों में से 289 पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन इसे एक भी सीट हासिल नहीं हुई। इसका वोट शेयर केवल चार प्रतिशत था। और आज, बीजेपी पर बंगाल की जनता का भरोसा बढ़ता जा रहा है जिसको हम लोकसभा 2019 के चुनाव परिणाम में देख सकते हैं (42 सीटों में बीजेपी ने 18 सीटें जीती थी )।
लेकिन एक फ़ैक्टर ये भी है कि मुसलमान ममता बनर्जी को वोट देते आये हैं लेकिन उनका एक बड़ा हिस्सा ममता सरकार से ख़ुश नहीं है, क्योंकि मुसलमानों को नौकरियों और शिक्षा में बेहतरी के दिए गए वादे पूरे नहीं किए गए। मेरे विचार में ममता से नाराज़ मुसलमान भी टैक्टिकल वोटिंग करेंगे और मुमकिन है उन्हें बीजेपी में अपने लीडरशिप की उम्मीद दिखे ।
टीएमसी में ‘भगदड़’
पश्चिम बंगाल में बीजेपी में इन दिनों दूसरे दलों से इतने लोग शामिल हो रहे हैं कि उसकी कवरेज के लिए पार्टी दफ़्तर में कोई ना कोई ज्वाइनिंग समारोह होता रहता है। बीजेपी पार्टी के बड़े नेताओं की सभाओं में तृणमूल कांग्रेस के बड़े नेता शामिल होते हैं तो उनकी भी खूब चर्चा होती है।
पिछले एक महीने में ममता के तीन मंत्रियों ने उनका साथ छोड़ा है – शुभेंदु अधिकारी, लक्ष्मी रतन शुक्ला और राजीब बनर्जी। अधिकारी बीजेपी में शामिल हो गए हैं, शुक्ला ने पार्टी नहीं छोड़ी है, बनर्जी के बीजेपी में जाने की अटकलें हैं। इनके अलावा भी कई और विधायक और नेता बाग़ी सुर अपना रहे हैं। 19 दिसंबर को गृहमंत्री अमित शाह ने मिदनापुर की एक रैली में ममता के मंत्री शुभेंदु अधिकारी सहित टीएमसी के 11 विधायकों, एक सांसद और एक पूर्व सांसद को पार्टी में शामिल करते वक़्त कहा था – “ये तो शुरुआत है, आखिर तक दीदी अपनी पार्टी में अकेली रह जाएंगी” ।
बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में दो आंतरिक सर्वे कराये जिसके सर्वेक्षणों के अनुसार, पश्चिम बंगाल में जनता के बीच भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ रही है और वह सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस का विकल्प बनकर उभर रही है, लेकिन पार्टी को अभी भी कुछ क्षेत्रों में संगठनात्मक मुद्दों का समाधान निकालना बाकी है। भाजपा ने दो अलग-अलग एजेंसियों से प्रदेश के 78,000 बूथों पर लोगों के मिजाज का पता लगाने के लिए सर्वे कराया। सूत्रों का कहना है सर्वे में पाया गया कि अम्फान चक्रवात के बाद तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों ने जमीनी परिस्थितियों में बड़ा बदलाव किया और यह परिवर्तन भाजपा के पक्ष में है।
एबीपी-सी-वोटर के सर्वे पर नजर डालें, तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की लोकप्रियता जनता के बीच अभी भी बनी हुई है । ममता बनर्जी सर्वे में 48 फीसदी लोगों की मुख्यमंत्री के तौर पर पहली पसंद है। लेकिन, पश्चिम बंगाल सरकार के कामकाज से जनता खुश नजर नहीं आ रही है। ओपिनियन पोल में ममता सरकार के कामकाज से 16 फीसदी लोग बहुत संतुष्ट और 22 फीसदी लोग संतुष्ट नजर आए। वहीं सर्वे में 49 फीसदी लोग राज्य सरकार के कामकाज से असंतुष्ट हैं। यह बात ममता बनर्जी की परेशानी बढ़ाने वाली है। सर्वे में इस बार फिर से ममता बनर्जी की सत्ता में वापसी का अनुमान तो है। लेकिन, बीजेपी की ओर से तृणमूल कांग्रेस को बड़ी चुनौती मिल सकती है।
सी-वोटर सर्वे के मुताबिक, तृणमूल कांग्रेस इस बार वोट शेयर में करीब दो फीसदी के साथ पिछली बार की 211 सीटों की तुलना में 158 सीटें जीत सकती है। बीजेपी के लिए यह ओपिनियन पोल काफी मायने रखता है। सर्वे के अनुसार, 37.5 फीसदी वोट शेयर के साथ बीजेपी 102 सीटें जीत सकती है। वहीं वाम दलों और कांग्रेस को भारी नुकसान उठाना पड़ा सकता है। इन पार्टियों का वोट शेयर पिछले चुनाव में 32 फीसदी था। जो इस बार घटकर 11.8 फीसदी हो सकता है, साथ ही इनकी सीटें 76 से घटकर 30 तक आ सकती हैं।
तृणमूल कांग्रेस के आंतरिक सर्वे में भी इसी प्रकार के नतीजों की संभावना जताई जा रही है । टीएमसी के आंतरिक सर्वे में पार्टी को कुछ सीटों का नुकसान होने की बात की गई थी। टीएमसी के आंतरिक सर्वे में बीजेपी को करीब 150 से अधिक सीटों पर जीत मिलने की उम्मीद जताई गई थी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)